सार्स-कोव-२ नामक नवीन कोरोना विषाणु वैश्विक महामारी कोविड-१९ का स्रोत है, जोकि लगभग २१४ देशों में कहर बरपा रही है, जिस कारण अनेक राष्ट्र बहुक्षेत्रीय लॉकडाउन और उससे उत्पन्न आर्थिक क्षति की भयावहता से जूझ रहे हैं। यह एक अत्यधिक संक्रामक व्याधि है, हालांकि भारतीय परिप्रेक्ष्य में इसके कारण होने वाली मृत्यु सामान्यतः कुल संक्रमित मामलों के केवल ४% से कम तक सीमित है। निम्न मृत्यु दर के उपरांत भी यह महामारी इतनी भयावह क्यों है? इसका उत्तर जीवविज्ञान में वर्णित डार्विन के सिद्धांत में निहित है, जोकि सभी जीवों की सबसे योग्य प्रजातियों के अस्तित्व की अवधारणा पर आधारित है। मनुष्य के सम्बन्ध में भी यह सिद्धान्त पूर्णतया प्रतिपादित होता है क्योंकि कोविड-१९ के विरुद्ध लडाई में शारीरिक प्रतिरक्षा प्रणाली की भूमिका मानव जीवन की दशा एवं दिशा तय करने में महत्वपूर्ण साबित होगी। कोरोना संक्रमण की तीव्रता इस तथ्य से प्रमाणित होती है कि संक्रमित व्यक्ति की निकटता प्रायः किसी भी स्वस्थ व्यक्ति को कोविड-१९ महामारी की चपेट में ले सकती है। साथ ही अब तक प्रतिरक्षक दवा की अनुपलब्धता एवं झुण्ड उन्मुक्ति (हर्ड इम्मुनिटी) प्राप्ति में होने वाली देरी भी इस महामारी को भयावह बनाते हैं। कोरोना विषाणु के संक्रमण को फेफडों तक पहुंचने से पूर्व नाक अथवा गले में समाप्त करने हेतु प्रचलित अनेक विधियां जैसे गर्म पेय पदार्थों का सेवन, नमक, हल्दी या लिस्टरीन के गरारे, हेयर ड्रायर का उपयोग इत्यादि किसी भी वैज्ञानिक शोध से समर्थित नहीं हैं अतः विश्वसनीयता से परे हैं।
महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि कोरोना संक्रमण की स्थिति में किस श्रेणी के व्यक्ति इसकी विभीषिका से अत्यधिक प्रभावित होते हैं? दुर्भाग्य वश यह श्रेणी अत्यधिक व्यापक है। संयुक्त राज्य अमेरिका स्थित रोग नियंत्रण एवं निवारण केंद्र के अनुसार ६५ वर्ष से अधिक़ उम्र के व्यक्ति, जो लोग नर्सिंग होम अथवा देखभाल केन्द्रों में दीर्घकालिक रूप से अवस्थित हैं, दमा रोगी, गंभीर हृदय रोगी, मोटापाग्रस्त व्यक्ति, मधुमेह रोगी, गुर्दा रोगी, यकृत के रोग से ग्रसित व्यक्ति एवं कमजोर प्रतिरक्षा प्रणाली से ग्रसित व्यक्ति जिसमें कैंसर रोगी, धूम्रपान के आदी लोग, अस्थि मज्जा अथवा अंग प्रत्यर्पित व्यक्ति, अनियंत्रित एच आई वी संक्रमित व्यक्ति तथा लंबे समय से कॉर्टिकोस्टेरॉइड्स का सेवन कर रहे लोग आते हैं। भारत की दृष्टि से इस श्रेणी में क्षय रोगी एवं बच्चे भी सम्मिलित हो जाते हैं क्योंकि अभी भी हम कुपोषण की समस्या से जूझ रहे हैं। भारत में लगभग १० करोड़ वरिष्ठ नागरिक , लगभग ८ करोड़ मधुमेह रोगी, ११ करोड़ से अधिक गुर्दे के रोगी, ४० करोड़ उच्च रक्तचाप ग्रसित, बच्चे बडे मिलाकर लगभग १० करोड़ ६० लाख से अधिक दमा रोगी , लगभग ६ करोड़ ६० लाख मोटापे से ग्रसित और लगभग २२ करोड़ ८० लाख बच्चे नौ साल से कम उम्र के हैं जो कोरोना महामारी के प्रति अतिसंवेदनशील हैं। अतः विशिष्ट दवा और टीके (वैक्सीन) के अभाव में विशेषज्ञों द्वारा सुझाये गये सफाई एवं स्वास्थ्य सम्बंधी तरीकों के अतिरिक्त शारीरिक प्रतिरक्षा प्रणाली उन्नयन विधियां कोविड-१९ के विरुद्ध युद्ध लड़ने में सहायक होंगी। इस विषय में केन्द्रीय आयुष मंत्रालय भी दिशा निर्देश जारी कर चुका है।
शारीरिक प्रतिरक्षा प्रणाली उन्नयन हेतु विटामिन-सी (स्रोत- संतरे, नींबू मौसम्बी इत्यदि खट्टे फल), विटामिन डी (स्रोत- सूरज की रोशनी, संतरे का रस, सोया दूध, अंडे की जर्दी, चीज, तैलीय मछली और मछली का तेल, कुछ विशिष्ट प्रजाति के मशरूम, गाय का दूध इत्यादि), प्रोटीन (स्रोत- अंडा, दालें, अंकुरित अनाज इत्यादि), खनिज विशेष रूप से जस्ता (स्रोत- लाल मांस, शैल मछली, चना, मसूर और सेम की फलियां, भांग, स्क्वैश, कद्दू, तिल इत्यादि के बीज, मूंगफली, काजू, बादाम इत्यादि नट्स) का प्रचुर मात्रा में सेवन करना चाहिये। पोषक तत्त्वों की पूर्ति हेतु पूरक आहारों से यथा संभव बचना चाहिए क्योंकि वे लाभ से अधिक हानि पहुंचाते हैं।
मदिरापान, धूम्रपान, अन्य मादक पदार्थों का सेवन, शिथिल जीवन शैली, मांसपेशियों के निर्माण हेतु उपचय स्टेरॉयड का सेवन एवं दवा के रूप में कॉर्टिको स्टेरॉयड का अत्यधिक सेवन भी किसी स्वस्थ व्यक्ति की शारीरिक प्रतिरक्षा प्रणाली को प्रभावित कर सकता है। यदि १५ वर्ष पूर्व मैंने तनाव पूर्ण जीवन शैली का परित्याग कर सक्रिय जीवन शैली अपनाकर वैकल्पिक उपचार प्रणाली अपनाई होती तो सम्भवतः उच्च रक्तचाप पर नियंत्रण किया जा सकता था और सदैव के लिये एलोपैथिक दवाओं के सेवन से बचा जा सकता था जिसके परिणामस्वरूप मैं सदैव के लिये भारत के विशाल उच्च रक्तचाप रोगी समूह का हिस्सा बन गया हूं।
एंटीबायोटिक दवाओं का अंधाधुंध प्रयोग न सिर्फ शारीरिक प्रतिरक्षा प्रणाली को प्रभावित करता है वरन दवा के रूप में इनकी प्रभावकारिता पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालता है। एंटीबायोटिक दवाओं के निरंतर घटते साम्राज्य के परिणामस्वरूप आज इनका दायरा ३००० से घट कर २०० रह गया है। इस विकट स्थिति के लिये मुख्यतया बिना चिकित्सकीय सलाह के इनका सेवन एवं मुर्गी पालन व्यवसाय में अविवेकपूर्ण ढंग से प्रयोग जिम्मेदार है। इसका कुछ श्रेय उन चिकित्सकों को भी जाता है जोकि औषधीय उत्पादन उद्यमियों द्वारा प्रभावित होकर क्षुद्र स्वार्थ पूर्ति के निहितार्थ हिप्पोक्रेटिक शपथ को ताक पर रखते हैं एवं अनावश्यक रूप से इनका सेवन उस लापरवाह एवं अशिक्षित जनता को करवाते हैं जोकि निदान की विधि पर आंख मूंद कर भरोसा करते हैं और प्रश्न नहीं पूछते। इसी प्रकार कॉर्टिकोस्टेरॉइड्स (ट्राइमिसिनोलोन, कोर्टिसोन, प्रेडनिसोन, मिथाइलप्रेडिसोलोन इत्यादि) का उपयोग त्वरित दर्द निवारक, शारीरिक प्रतिरक्षा प्रणाली की अतिशीलता के प्रभाव को कम करने, सूजन को कम करने एवं जीवन रक्षक दवा के रूप में किया जाता है किन्तु इनका अनियंत्रित एवं अत्यधिक सेवन शरीर पर दीर्घकालिक प्रभाव छोडता है जिससे ग्लूकोमा, उच्च रक्तचाप, अनिद्रा, ऑस्टियोपोरोसिस इत्यादि बीमारियां होने का खतरा रहता है। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान नई दिल्ली के विशेषज्ञ भी उपरोक्त स्थिति से बचने हेतु विभिन्न माध्यमों जैसे रेडियो, दूरदर्शन, समाचार पत्रों इत्यादि से जनता को सचेत करते रहते हैं। उक्त संस्थान में प्रदत्त शिक्षा भी छात्रों को भविष्य में नैतिक प्रथाओं का पालन करते हेतु प्रेरित करती है। कुछ अपवादों को छोड़ कर वे इसका अनुपालन भी करते हैं। इस तथ्य का अनुभव मुझे इस प्रकार हआः मेरा बेटा बचपन में तीव्र शीतकालीन खांसी और जुकाम से बीमार हो गया। रेलवे कोच कारखाना अस्पताल कपूरथला में चिकित्सक ने, जोकि उक्त संस्थान की पूर्व छात्रा थी, भाप के सेवन और खांसी की दवा के सेवन की सलाह दी क्योंकि वह शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता पर विश्वास करती थी।चार दिनों के बाद भी जब उसकी स्वास्थ्य की स्थिति में सुधार नहीं हुआ तब उसने कुछ हल्के एंटीबायोटिक के सेवन की सलाह दी। तत्पश्चात भी स्थिति में सुधार न होने पर ही उसने गहन चिकित्सा का सहारा लिया और रोग निदान किया। हम माता-पिता के रूप में अधीर हो रहे थे, फिर भी उसने लगातार हमें शांत किया। अन्त में हम उसके रोग निदान की विधि से अत्यधिक प्रभावित हुए जब हमें यह ज्ञात हुआ कि अनेक विकसित देशों में भी इसी तरह की चिकित्सा पद्धति अपनाई जाती है।
उक्त उद्धरण यह समझने के लिये पर्याप्त हैं कि हमें यथा सम्भव रासायनिक औषधियों के उपयोग से बचना चाहिए और प्राकृतिक विधियों से शारीरिक प्रतिरक्षा प्रणाली को सुदृढ़ बनाना चाहिए। इस हेतु प्रमुख रूप से प्राकृतिक जीवन शैली का वरण किया जा्ना चाहिये जिसमें हल्दी, तुलसी, लहसुन, गिलोय (टीनोस्पोरा कॉर्डिफ़ोलिया) , इलायची, दालचीनी सहित प्राकृतिक उत्पादों का प्रचुरता से उपयोग, स्वच्छता का दैनिक क्रियाकलापों में प्रमुखता से समायोजन, मादक पदार्थों का परित्याग, नियमित व्यायाम, योग, ध्यान इत्यादि का अभ्यास समाहित हैं। उक्त क्रियाकलाप न केवल कोविड-१९ से लड़ने में मदद करेंगे, वरन हमें अन्य मौसमी संक्रमणों से लड़ने में भी सक्षम बनाएंगे, जो हमें निरंतर परेशान करते रहते हैं। इसके अतिरिक्त प्राकृतिक चयन के नियमों के अनुसार हमारी संतानों को भी सशक्त बनाने हेतु गर्भवती माताओं को मादक पदार्थों के सेवन से बचना चाहिए, पौष्टिक भोजन का सेवन करना चाहिए, अच्छा संगीत सुनना चाहिए, और अच्छा साहित्य जिसमें धार्मिक पुस्तकें भी शामिल हैं, को पढ़ना चाहिए। साथ ही माताओं को शिशु हेतु स्तनपान के महत्त्व को समझ कर यथासंभव इसका उपयोग करना चाहिए क्योंकि यह शारीरिक प्रतिरक्षा प्रणाली को सशक्त बनाने में मुख्य भूमिका निभाता है। मुझे विश्वास है कि उपरोक्त तरीके न केवल कोरोना महामारी के विरुद्ध निर्णायक युद्ध में विजय पताका लहराने में सहायक होंगे, वरन् स्वस्थ राष्ट्र की परिकल्पना को भी साकार करेंगे। अंततोगत्वा शारीरिक, भावनात्मक और शैक्षणिक रूप से सुदृढ भारत वासी भारत की प्रगति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायेंगे।
लेखक- डॉ. प्रशांत थपलियाल
सहायक प्राध्यापक
आर्मी कैडेट कॉलेज
भारतीय सैन्य अकादमी देहरादून