जिहाद का बारूद बह रहा
झेलम के बर्फीले पानी में
जिहाद की डली घुल गई
डल झील के अरमानों में
कहते हो जिसे तुम कश्मीर का केसर
उस केसर में सूँघो अब जिहाद का असर
सेब कष्मीर के अपने रंग मे दिए जिहादी शैतानों ने
खींच निकाली बाहर हर दिल से दोनों
कश्मीरियत और इन्सानियत इन बर्बर हैवानों ने
बीते सत्तर साल गली-कूचों में
भर चुके हवा ज़हरीली- जिहादी
अब लकीर पीटने से क्या होगा ऐ प्यारे भारतवासी।
पक कर तैयार खड़ी है
सत्तर सालों में जिहाद की फसल
बैठ कर भारतवासी पछता ले
हाथ अपने दोनों मसल,
तोड़ दे अलगाव-वाद की एक-एक डोर
थाम ले मजबूती से भारत का उत्तरी छोर
जाग नींद से भारतीय देख क्षितिज की ओर
टकटकी लगाए देख रही तुझे सुनहरी भोर।
VIRENDRA DEV GAUR
CHIEF-EDITOR