सचिवालय हो या विधान सभा परिसर पत्रकार कहकर यहाँ घुसने वालों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। सच है कि ये सरकारी संस्थान गणतंत्र के गण के लिये ही बने हैं किंतु बड़े-बड़े चैनलों और बड़ें-बड़े बैनरों की आड़ में इन संवदेदनशील परिसरों में दाखिल होने वाले कथित पत्रकारों की छँटनी के लिये उचित व्यवस्था का न होना सुरक्षा के नजरिये से प्रश्न चिह्न खड़े कर रहा है। इन संस्थानों की सुरक्षा में कोताही किसी विपदा को दावत दे सकती है। मान्यता प्राप्त पत्रकारों और राजधानी स्थित मीडिया के प्रतिनिधियों के इतर कई ऐसे तत्व हैं जो गलतबयानी कर इन संस्थानों में प्रवेश कर रहे हैं जिसे नकारा नहीं जा सकता है। संबन्धित सरकारी एजेन्सियों को चौकस रहने की ज़रूरत है ताकि किसी अज्ञात अराजकता से बचा जा सके। विदित रहे कि आए दिन सचिवालय परिसर में समाचार पत्रों और समाचार माध्यमों के प्रतिनिधियों को जाना पड़ता है। सचिवालय प्रवेश के लिये मान्यता प्राप्त पत्रकार पहचान पत्र के अलावा ‘पास’ जारी किये जाते हैं। जिसके चलते समाचार संबंधी कार्य के लिये प्रवेश पाने वालों को नियंत्रित किया जाता है। किंतु कई ऐसे तत्व हैं जो स्पष्ट तौर पर न तो किसी समाचार संस्थान से जुड़े होते हैं और न ही जिनका पत्रकारिता से दूर दूर का नाता होता है। ऐसे लोग भी संदिग्ध गतितिधियों को अंजाम देने के लिये स्थापित बैनरों का नाम लेेकर रुआब डालकर प्रवेश पा रहे हैं। सुरक्षा एजेन्सियों और खुफिया तंत्र को सजग रहने की जरूरत है। अन्यथा लेने के देने पड़ सकते हैं। इस समस्या से निपटने के लिये सूचना विभाग है किंतु इस विभाग की क्षमताओं का उचित तरीके से दोहन नहीं किया जा रहा है। बहरहाल, इन सरकारी संस्थानों की सुरक्षा में सेंध लग पाने के सभी विकल्पों पर सक्षम विभागों को मुस्तैद रहना अपरिहार्य माना जा रहा है। पत्रकारिता का गलत तरीकों से इस्तेमाल करने वाले और खुद को पत्रकार बताने वाले हमेशा से ही एक चुनौती बने रहे हैं। इनका एकमात्र मकसद होता है अपने उल्टे-सुल्टे कामों को आगे बढ़ाना। ये कथित पत्रकार संजीदा पत्रकारों के लिये भी समस्या बन जाते हैं। ऐसे हालात में गाज ऐसे लोगों पर गिरती है जो जायज पत्रकार हैं। गुजरे समय में कई बार पत्रकारों की भीड़ के नियंत्रण को लेकर गर्मागर्मी हो चुकी है। बावजूद इसके इस विकराल होती जा रही समस्या को सुचारु बनाने के लिये बरती जा रही ढिलाई चिंता का विषय है। प्रेस की ढाल का चस्का सर चढ़कर बोल रहा है। कोई नहीं कह सकता कि वकालत और प्रेस का बिल्ला लगाये कार के अन्दर एक वकील बैठा है या पत्रकार या दोनों में से एक भी नहीं। अक्सर यह भी देखा जाता रहा है कि प्रेस का ठप्पा लगी कार के अन्दर न तो कोई पत्रकार बैठा होता है और न ही उसका कोई रिश्तेदार किन्तु कार में नेतागण बैठे होते हैं। क्या यह उचित है ? कारों, स्कूटरों और बाइकों में प्रेस के नाम का सावन बरस रहा है। समझ में नहीं आता कि हर पांचवी छठवीं गाड़ी पर प्रेस का बिल्ला लगाये घूम रहे इतने पत्रकार आए तो कहां से आए। आखिर पत्रकारों की यह बम्पर खेती उगाई कहां जा रही है ? हमारा सरकारी सिस्टम हाथ पर हाथ धरे यह तमाशा कई सालों से देखता आ रहा है पर किसी के सर पर जूं नहीं रेंग रही। आखिर सरकारी अमले होते काहे के लिए हैं। दीगर है कि सरकारी अमले अपनी जिम्मेदारी नहीं निभा रहे। अनियंत्रित पत्रकारांे की इस भीड़ में से कौन असली, कौन नकली-कौन फैसला करेगा।
virendra dev gaur
chief-editor