18 फरवरी 1630 के मायने
सावित्री पुत्र वीर झुग्गीवाला (वीरेन्द्र देव)
छत्रपति शिवाजी महाराज जिनको उनकी माताश्री जीजा बाई जी शिव्बा कहकर पुकारती थीं एक दिव्य पुरूष थे। जो सही मायने में भारतीयता से ओतप्रोत थे। शिवाजी महाराज से न केवल औरंगजेब दहशत में रहता था बल्कि बीजापुर की आदिलशाही भी उनसे खौफजद़ा रहती थी। शिवाजी महाराज के शुरू के पाँच वर्ष यानी उनका शैशव नितान्त विपरीत परिस्थितियों में बीता। उन्हें पिता शाह जी महाराज का पितृ प्रेम नहीं मिला। माता जीजा बाई जहाँ रामायण और महाभारत की भावनाओं से ओतप्रोत रहती थीं और धार्मिक स्वभाव की थीं वहीं शिव्बा के पिता बीजापुर सुल्तान के सरदार थे और वे तनमन से वहाँ सेवारत थे। शिव्बा के रक्त में रामायण और महाभारत घुल गया था क्योंकि माता जीजा बाई उन्हें राष्ट्र को दासता से मुक्त कराने के लिए वीरता में ढाल रही थीं। जिसमें वे शत- प्रतिशत सफल रहीं। केवल 15 साल की आयु में शिव्बा ने सौगन्ध खाई कि वे राष्ट्र को मुगलों की दासता से मुक्त कराएंगे। उन्होंने न केवल बीजापुर सल्तनत को हिलाकर रख दिया था बल्कि मुगलों के सूबेदार और सरदार उनसे भयभीत रहने लगे थे। दर्जनों किले शिव्बा ने जीत लिए थे जिनमें से ज्यादातर किले बीजापुर सल्तनत के थे। केवल औरंगजेब के एक वरिष्ठ सरदार मिर्जा राजा जयसिंह ही उन्हें परास्त कर पाए थे। मिर्जा राजा के अलावा छत्रपति को कोई परास्त नहीं कर सका था। 6 जून 1674 में काशी के एक सुप्रसिद्ध विद्वान पंडित की सलाह पर शिवाजी ने छत्रपति बनना स्वीकार किया था। अन्यथा, वे छत्रपति बनने को तैयार नहीं थे। शिवाजी का तर्क था कि वे स्वराज्य के सेवक हैं न कि राजा। शिवाजी त्यागमयी जीवन जीते थे। वे बाजरा की रोटी, दूध-भात और सब्जी खाकर प्रसन्न हो जाते थे। अल्पाहारी थे। उनके गुरु समर्थ गुरु रामदास भगवान राम के भक्त थे और उन्होंने शिवाजी को उनके जीवन के अन्तिम वर्षों में आध्यात्मिक और राष्ट्रीय भावना की शिक्षा दी थी। हालाँकि, शिवाजी जन्म से ही राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत थे। शिवाजी से अंग्रेज, डच और पुर्तगाली भी भयभीत रहते थे क्योंकि शिवाजी भारत विरोधी कुप्रवृत्तियों के खिलाफ आजीवन लड़ते रहे। शिवाजी महाराज ने गोलकुण्डा की कुतुबशाही से कूटनैतिक संबन्ध स्थापित किए थे। शिवाजी महाराज गऊ, ब्राह्मण और मठ मन्दिरों की प्रतिष्ठा को बनाए रखने के लिए भी संघर्षरत रहे। उनके मुकाबले में उत्तर भारत का एक ही वीर मुगलों से अंत तक लड़ता रहा और मुगलों का ऐसा कोई सरदार या सूबेदार और सेनानायक नहीं बचा था जिसने उसके हाथों करारी मात न खाई हो। उस परमवीर का नाम है महाराजा छत्रसाल। महाराजा छत्रसाल बुन्देलखण्ड के एक छत्र महाराजा बने। वे शिवाजी महाराज को अपना राजनैतिक गुरु मानते थे और उन्हें भगवान की तरह पूजते थे। शिवाजी महाराज ने जंगी नाविक बेड़ा भी तैयार किया था। यानि उन्होंने नौसेना भी खड़ी की थी ताकि विदेशी ताकतों-अंग्रेजों, डचों और पुर्तगालियों को सबक सिखा सकें। शिवाजी महाराज दूरदर्शी होने के साथ-साथ विद्वान भी थे। वे मर्यादा से रहते थे और विरोधियों के साथ भी मर्यादा से पेश आते थे। वे जब राजसी पोशाक में होते थे तो उनके प्रशंसको को उनमें भगवान राम दिखाई देते थे।नियति ने क्रूर खेल खेला और मात्र पचास साल की आयु में माँ भारती का यह महान सेना नायक ‘हिन्दवी स्वराज’ के निर्माण कार्य को अधूरा छोड़कर अपनी पूज्य स्वर्गीय माता के चरणों में चले गए।