वर्तमान समय में भारतवर्ष का सामान्य जन इलेक्ट्रॉनिक संचार माध्यमों के प्रति गहन द्वंद्व से भरा हुआ है। जनसामान्य का एक बड़ा हिस्सा उन पत्रकारों के प्रति आकर्षित होता है जो देशज संस्कृति तथा राष्ट्रवाद के ध्वजवाहक हैं। जबकि जनसामान्य का दूसरा बड़ा हिस्सा उन पत्रकारों को सत्य के करीब पाता है जो भारतीय राष्ट्रवाद तथा देशज संस्कृति को पुरातन तथा घृणा स्पद मानते हैं। अर्नब गोस्वामी जन आकर्षण के एक धुव के रूप में उभरे हैं जबकि रवीश कुमार जन आकर्षण का एक विपरीत ध्रुव बनकर उभरे हैं। सार्वजनिक जीवन में दिलचस्पी रखने वालों को एक का चुनाव करते समय बेहद सतर्क रहने की जरूरत है। यहां दो पत्रकारों या दो व्यक्तित्व का संघर्ष नहीं है। यह समन्वय वादी, सनातन देशज संस्कृति तथा विदेशी वैचारिक त्रिशूल के मध्य एक विराट संघर्ष है।
एक प्रकार का पत्रकार भारतवर्ष को पद आक्रांत करने वाले विचारों का समर्थन करता है। अरबी- तुर्की साम्राज्यवाद ने विश्व प्रसिद्ध शिक्षा संस्थाओं को नष्ट किया। हजारों धर्म स्थलों को तोड़ा तथा लूटा। कुछ हमलावर इस देश में कब्जा कर बैठ गए मगर उन्होंने कभी भी यहां के अनुकूल होने का प्रयास नहीं किया। इसके विपरीत उन्होंने इस देश की हर जीवित चीज को अपने अनुकूल रूपांतरित करने का दुष्कर बीड़ा उठाया ! उन्होंने इस देश की शास्त्रार्थ पद्धति को समाप्त किया! उन्होंने नए प्रकार की तार्किक पद्धति प्रारंभ की जिसमें विरोधियों को मूल प्रश्न उठाने की स्वतंत्रता नहीं थी। जो ऐसे प्रश्न उठाने का प्रयास करें उसे काट डालने के लिए रक्त रंजित खड़ग हमेशा हाथों में रखी। इस साम्राज्यवाद ने ईरान में पारसी धर्म को विलुप्त किया तथा मध्य एशिया में बौद्ध धर्म को विलुप्त किया। आज भी अफगानिस्तान में गौतम बुद्ध की शिला प्रतिमाओं को चिर निंद्रा में रहने का अधिकार नहीं दिया जा रहा है। दूसरे धर्मों को नष्ट करने वाले लोगों को इस साम्राज्यवाद के वंशजों ने अपना संत या पीर घोषित किया है। कुछ दिनों पहले दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष ने मध्य पूर्व से आने वाले तूफान की तरफ इशारा किया है। इस धमकी को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में समझने की आवश्यकता है।
कालांतर में इस भू-भाग पर रोमन-यूरोपीय साम्राज्यवाद ने हमला किया तथा विजय पाई। इन लोगों ने
देशज संस्कृति को निम्न कोटि का सिद्ध करने का भरसक प्रयास किया। इनके अनुसार भारतीयों के पास शिल्प विद्या, वास्तु कला, भाषा, संस्कृति, विज्ञान, गणित, दर्शन ,साहित्य इत्यादि का नितांत अभाव था! यह लोग गोरों के दायित्व से दबे पड़े थे। अपने अनैतिक आचरण तथा इस भूभाग पर चल रहे भयानक आर्थिक शोषण को छिपाने के लिए इन लोगों ने देशज लोगों को असभ्य व अनैतिक घोषित करने का प्रयास किया। यूरोपियन ने चमत्कारी पानी के द्वारा भारतीयों को स्वस्थ बनाने तथा स्वतंत्रता प्रदान करने का प्रयास किया। कोरोना वायरस द्वारा फैलाई गई बीमारी ने साबित किया कि इन लोगों के चमत्कारी पानी पर भरोसा करना सरासर मूर्खता है क्योंकि यूरोप में सैकड़ों धार्मिक लोग व धार्मिक नेता इस चमत्कारी पानी के बावजूद मर चुके हैं। राजीव गांधी के प्रधानमंत्री काल में पोप ने अपनी भारत यात्रा के दौरान आत्माओं की फसल काटने का संकल्प लिया था। यह संकल्प रोमन -यूरोपिय साम्राज्यवाद के कुत्सित पहलू को उजागर करता है।
आक्रमणकारी त्रिशूल का तीसरा सिरा मार्क्सवाद के जहर से बुझा हुआ है। इस विचारधारा को लेनिन तथा माओ ने मिट्टी प्रदान की। इस विचारधारा में मानव जीवन के केवल एक आयाम आर्थिक समानता को स्वीकारा गया है। मनुष्य पदार्थ से भिन्न भी है इसकी कल्पना इस विचार में नहीं है। सोवियत संघ तथा चीन में लाखों लोगों को इस विचारधारा के कारण नश्वर शरीर से मुक्त होना पड़ा! आज भी चीन अपने समाज, अर्थव्यवस्था, राजनीतिक कार्य प्रणाली इत्यादि को दुनिया से छुपाता है। कोविड १९ के बारे में भी चीन ने दुनिया को भरमाया। कंबोडिया के एक साम्यवादी तानाशाह ने चश्मा पहनने वाले लोगों को मारने का आदेश दिया था। उसे लगता था कि यह लोग बुद्धिजीवी हो सकते हैं तथा उसके शासन के खिलाफ आवाज उठा सकते हैं। साम्यवाद शासित भारतीय राज्यों में भी विरोधियों को कभी बर्दाश्त नहीं किया गया। आज से लगभग चार दशक पहले पश्चिम बंगाल में आनंद मार्गी साधुओ की हत्या की गई थी। जिन अधिकारियों ने इस मामले को उठाने का प्रयास किया था वह या तो मारे गए या प्रताड़ना के सामने झुक गए।
पत्रकारों का दूसरा समूह देशज संस्कृति के सनातन मूल्यों के साथ खड़ा है। वे जानते हैं की विदेशी जहरीले विचार समूहों का खतरा बढ़ता जा रहा है। इनसे मुकाबला बेहद कडा है। निराशा में वे आंदोलित हो जाते हैं। उन पर एकपक्षीय होने का आरोप लगाया जाता है! परंतु निरपेक्ष कौन है ?सीएनएन? बीबीसी ?चीनी न्यूज़ एजेंसी? पाक न्यूज़ एजेंसी ?भारतीय वामपंथी ?अरबी तुर्की विचारक ?बॉलीवुड के नामचीन? बॉलीवुड के विचारक एक धर्म विशेष की कमियों को उजागर करने में उस्ताद हैं मगर अन्य संस्कृतियों की कमियों को उजागर करने का साहस उनमें नहीं होता। इंटरनेट पीढ़ी हर विचार पद्धति तथा धर्म कि तमाम बुराइयों से परिचित हो चुकी है। अब अन्य विचार पद्धतियों की कमियों को आवृत करने का प्रयास हास्यास्पद लगता है।
कुछ दशक पहले सैमुअल हटगटन ने अपनी पुस्तक में सभ्यता गत संघर्ष की अवधारणा प्रस्तुत की थी। भूरे यूरोपियन ने इस अवधारणा को अपने लेखों में बारंबार उद्धृत किया था। मेरे हिसाब से सभ्यता गत संघर्ष भारतीय उपमहाद्वीप में पिछले १३ सो वर्षों से सतत चल रहा है। ईश्वर से प्रार्थना करता हूं की समावेशी भारतीय जीवन पद्धति उन एकांगी विचारधाराओ के आक्रमणों से स्वयं को सुरक्षित रख पाएगी तथा विजित होकर चतुर्दिक फैलेगी! -सुरेंद्र देव गौड़
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