विकल्प तलाशते लोग
जौनपुर। बदलते मौसम तथा औद्योगीकरण का गंभीर खामियाजा मनुष्य के साथ जीव-जंतुओं को भी भुगतना पड़ रहा है। इसकी एक झलक इस समय चल रहे पितृपक्ष पखवाड़े में कौवों का नजर नहीं आना है। शास्त्रों के अनुसार पितृपक्ष में कौवों को भोजन कराना शुभ माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि पितृपक्ष के दौरान पितर कौवे के रूप में आते हैं, परंतु गिद्ध की भांति कौवे भी नजर नहीं आ रहे हैं। इससे परेशान लोग पंडितो के पास पहुंचकर कौवे नहीं मिलने पर उनके विकल्प और समाधान पूछ रहे हैं।इस माह में तो कौवे लगभग पूरी तरह से गायब हैं। धर्म और पर्यावरण प्रेमी दोनों ही इन स्थितियों से बेहद चिंतित हैं। ज्ञात हो कि 06 सितम्बर से पितृपक्ष चल रहा है। हिंदू मान्यता के अनुसार पितृपक्ष के दौरान स्वर्ग के द्वारा खुले रहते हैं, जिससे इस दौरान पितर पृथ्वी पर आकर अपने परिजनों के हाल-चाल देखते हैं। मान्यता के अनुसार पितृपक्ष में यदि किसी की मृत्यु हो जाए तो उसे भी बेहद शुभ माना जाता है। पितृपक्ष के दौरान पितरों की याद में परिजनों द्वारा प्रतिदिन पिंडदान, तर्पण तथा ब्राह्मण भोजन भी कराया जाता है, वहीं पितरों के श्राद्ध के दिन घर की रसोई में बनी भोजन की पहली थाली को घर की छत या आंगन पर रखने की भी परंपरा है। शास्त्रों के मुताबिक यह भोजन कौवे के लिए रखा जाता है तथा कौवे द्वारा भोजन प्राप्त कर लेने से उस भोजन को पितरों को प्राप्त होना मानकर उसके बाद ही घर के लोगों द्वारा भोजन किया जाता है। लेकिन आज के बदलते दौर तथा तेजी से हो रहे औद्योगीकरण का असर पितृपक्ष में भी नजर आ रहा है। पितृपक्ष के दौरान प्रतिदिन कौवे के लिए थाली निकालकर रख देने के बाद और घंटों इंतजार के बाद भी लोगों को कौवे के दर्शन नहीं हो रहे हैं। पितृपक्ष के दौरान पितरों के लिए भोजन की थाली निकालकर बैठे लोग कौवे के न आने को पितरों के नाराज होने से जोड़कर देख रहे हैं. वहीं पर्यावरण पर शोध कर रहीं नीलिमा पटेल एवं प्रीती राजपूत ने बताया कि फसलों तथा जीव-जंतुओं पर कीटनाशक के प्रयोग होने तथा ध्वनि प्रदूषण की वजह से नगरीय इलाकों में कौवों की संख्या कम हुई है और ये अब घनी बस्ती से परे हटकर साफ पर्यावरण की तलाश में जंगलों की ओर रुख कर गए हैं।