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लोकतंत्र

बेलगाम लोकतंत्र या कि राजतंत्र

-नेशनल वार्ता ब्यूरो-

महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री की कुर्सी के लिए चल रही उठापटक लोकतंत्र के विद्यार्थियों के लिए सिर दर्द है। आखिर, लोकतंत्र का विद्यार्थी लोकतंत्र का क्या अर्थ निकाले। महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री अपने कामकाज के लिए एक दिन भी मुख्यमंत्री के कार्यालय नहीं गया। क्या यह अजूबा नहीं है। कार्यालय जाकर ही तो तमाम दायित्वों का निर्वहन किया जा सकता है। मुख्यमंत्री के सरकारी आवास और मुख्यमंत्री के कार्यालय में बहुत फर्क होता है। मुख्यमंत्री के कार्यालय में एक दिन भी ना जाना गंभीर प्रश्न खड़ा करता है। यह इस बात का प्रमाण है कि उद्धव को महाराष्ट्र के विकास में कोई रूचि नहीं थी। वे कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस के  इशारों पर नाच रहे थे। ऐसी स्थिति में शिवसेना के विधायकों और मंत्रियों को उनके लिए समय दे पाना बहुत मुश्किल हो गया था। ऐसी स्थिति में ही एकनाथ शिंदे जैसे विधायक और मंत्री घुटन महसूस कर रहे थे। वे कह भी रहे हैं कि उनका मुख्यमंत्री से मिलना असंभव सा हो गया था। क्या यह मुख्यमंत्री की ओर से राजा जैसा व्यवहार नहीं। ऐसा राजा जो यह मान कर बैठा था कि शिवसैनिक तो अपने घर के हैं। कांग्रेसी और राष्ट्रवादी कांग्रेसी बाराती हैं, लिहाजा, बारातियों का मनोरंजन किया जाता रहे। सत्ता की शादी सम्पन्न होती रहेगी। यह खयाल पाले बैठे थे उद्धव सरकार। नतीजा, एकनाथ शिंदे का भयानक आक्रोश। इस आक्रोश में भाजपाई उनके लिए टैन्ट तम्बू लगाने का काम कर रहे हैं। उनके लिए स्वागत भोज कर रहे हैं। साथ में यह भी कह रहे हैं कि हम तो तटस्थ हैं। भाजपाइयों का कोई दोष नहीं है लेकिन इस तरह शिंदे की पीठ के पीछे बैठे रहना वीरता नहीं है। राजनीति में सूझबूझ के साथ राजनीतिक वीरता की भी जरूरत पड़ती है। उद्धव यानी राजा साहब जो यह मान कर चल रहे थे कि कम से कम पांच साल तो सत्ता का सुख भोगते रहेंगे। मेहनत नहीं करेंगे। दौड़धूप नहीं करेंगे। शरद पवार जैसे कथित दिग्गज हैं तो मुझे चिंता करने की क्या जरूरत। अब देखिए राजा साहब के महामहिम शरद पवार चिंता में दुबलाते जा रहे हैं। उनकी उम्र में दुबलाना सेहत के लिए खतरनाक होता है। राजा साहब ने सरकारी आवास वर्षा छोड़ कर खुद को त्यागपुरूष साबित कर दिया। अपने निवास मातोश्री पहुँच कर उनकी जीभ सत्ता के लिए फिर लपलपाने लगी। संजय राउत गुंडई अंदाज में शिंदे को धमका रहे हैं और राजा साहब कहते फिर रहे हैं कि बंगला छोड़ा है संघर्ष नहीं। राजा साहब, संघर्ष ना छोड़ते तो आपके इरादों का इस तरह फलूदा नहीं निकलता। अब तो यह भी पता नहीं कि आप शिवसैनिक रह पाएंगे या नहीं। एकनाथ शिंदे तसल्ली से अपनी ताकत का प्रदर्शन कर रहे हैं। बहरहाल, अगर यही लोकतंत्र है तो भारत वर्ष का उत्थान मुश्किल लगता है।

 

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